इस काल का इतिहास पूर्णतः पुरातात्विक साधनों पर निर्भर है, इस काल का कोई लिखित साधन उपलब्ध नहीं है। पुरातत्वविदों ने इस काल को तीन भागों में विभाजित किया है:
- पूरा पाषाण काल
इस काल में मानव खाद्यान्न संग्रह के द्वारा अथवा पशुओं का शिकार करके जीवन यापन करता था। उनके निवास के प्रमाण ‘शैलाश्रयों’ के रूप में मिले हैं। इनके औजार और हथियार न परिष्कृत है न तीक्ष्ण हैं। इन्होंने कुल्हाड़ी काटने का औजार पत्तर, तक्षणी, खुरचनी, छेदनी, बनाना सीख लिया था। इस काल के अंत में चकमक का आविष्कार भी हो गया था।
हड्डियों के अवशेषों एवं शैलाश्रयों की कलाकृतियों से इस काल में उपलब्ध पशुओं के विषय में जानकारी मिलती है कि वे बन्दर, जिराफ, हिरण, बकरी, भैंस, गाय, बैल, नीलगाय, सूअर, बारहसिंगा, सांभर, गैंडा, हाथी, आदि से भिज्ञ थे। जलीय जीवों में आदिमानव कछुओं एवं मछलियों से परिचित हो गया था। वनस्पतियों में वह विभिन्न प्रकार के फलों, फूलों, कंदमूल के अतिरिक्त मधु (शहद) के छत्तों से शहद निकालने में निपुण था। वह कन्दराओं में रहता था जिन्हें शैलाश्रय कहा गया है।
इस काल के मानव के अवशेष पश्चिमोत्तर भारत में सोहन घाटी में बड़े व्यापक स्तर पर प्राप्त हुए हैं। बेलन नदी घाटी, नर्मदा नदी घाटी, लूनी नदी घाटी, चम्बल नदी घाटी, आदि में पुरातात्विक बस्तियां प्राप्त हुई हैं। इसी प्रकार दक्षिण भारत में गोदावरी व कृष्णा नदी घाटियों, पूर्वी भारत में दामोदर, स्वर्णरेखा, महानदी के डेल्टा क्षेत्रों में पूरा-पाषणयुगीन वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। भोपाल के समीप स्थित ‘भीमबेटका’ से इस काल की अनेक कलाकृतियाँ उस शैलाश्रय में चित्रित हैं जिनसे ज्ञात होता है कि वे शैलाश्रयों का उपयोग स्थायी निवास के लिये करते थे।
नवासा, कोरेगांव, चंदौली, शिकारपुर, आदि में भी पूरा-पाषाणयुगीन मानव जीवन के चिन्ह प्राप्त हुए हैं।
- मध्य-पाषाण काल
इस काल में मानव जीवन में अपेक्षाकृत अधिक स्थायित्व आने लगा और उसके संचरण क्षेत्र में भी विस्तार हुआ। इसलिए इस काल में अनेक नवीन क्षेत्रों में भी पाषाण संस्कृति का उद्भव मिलता है। इस काल में मनुष्य पशु-पालक भी हो गया। इसके अतिरिक्त आखेट की प्रविधि में भी परिष्कार हुआ। वह पूरा-पाषाण काल के औजारों-हथियारों की अपेक्षा तीक्ष्ण औजारों-हथियारों का उपयोग कर गतिमान पशुओं का भी शिकार कर लेता था। इस काल के तिकोने धार वाले हथियार, नुकीले हथियार बहुतायत से मिले है।
मध्य-पाषाणयुगीन बस्तियां राजस्थान से लेकर मेघालय तक, उत्तर प्रदेश से लेकर कृष्णा नदी तट तक प्राप्त हुई है। बागोर, तिलवार (राजस्थान में) इस युग के प्रमुख स्थल हैं। बागोर में मध्य पाषाण युग में पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। गुजरात में लंघनाज, बलसाना तथा आदमगढ़ (मध्य प्रदेश) से भी पशुपालन के साक्ष्य मिले हैं। संगनकल (कर्नाटक), रेणीगुंटा (आंध्र प्रदेश), तिन्नेवेली (तमिलनाडु), मयुरभंज (बिहार), सेबालगिरी (मेघालय) से इस काल के पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं।
- नव-पाषाण काल
नव-पाषाण काल के प्रथम प्रस्तर उपकरण उत्तर प्रदेश की टोंस नदी घाटी से १८६० ई. में लेन्मसुरियर ने प्राप्त किये थे।
नव-पाषाणयुगीन प्राचीनतम बस्ती मेहरगढ़ में प्राप्त हुई है जो पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में है। मेहरगढ़ में कृषि के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं तथा कच्चे घरों के साक्ष्य भी मिले हैं। मेहरगढ़ में रहने वाले नव-पाषाणयुगीन लोग गेहूं, जौ और कपास उत्पन्न करते थे।
नव-पाषाणयुगीन स्थल बुर्जहोम एवं गुफ्फकराल (कश्मीर प्रांत में) से अनेक गड्ढाघर और अनेक मृदभांड तथा प्रस्तर एवं हड्डी के अनेक औजार मिले हैं। बुर्जहोम से प्राप्त कब्रों में पालतू कुत्तों को मालिक के साथ दफनाने के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। यहीं से कृषि व पशुपालन के साक्ष्य भी मिले हैं।
चिरांद (बिहार प्रांत) नामक नव-पाषाणयुगीन स्थल से प्रचुर मात्रा में हड्डी के उपकरण मिले हैं, ये उपकरण अधिकांशतः हिरण के सींगों से निर्मित हैं। कोल्डिहवा (इलाहाबाद के समीप) नव-पाषाण पुरास्थल से चावल का प्राचीनतम साक्ष्य (लगभग ६००० ई. पू.) मिला है।
नव-पाषाणयुगीन मानव सर्वाधिक प्राचीन कृषक समुदाय के थे वे मिट्टी और सरकंडे के बने गोलाकार अथवा आयताकार घरों में निवास करते थे।
दक्षिण भारत में नव-पाषाणयुगीन मुख्य स्थल बेलारी है जो कर्नाटक प्रांत में स्थित है। पिकलीहल नामक नव-पाषाणयुगीन स्थल (कर्नाटक में) से शंख के ढेर और निवास स्थान दोनो पाए गए हैं। नव-पाषाण काल से ही कुम्भकारी के प्रथम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं अर्थात कुम्भकारी इसी काल से प्रारंभ हुई थी।
नव-पाषाण काल की प्रमुख उपलब्धि कही जा सकती है –
१) खाद्य उत्पादन का आविष्कार
२) पशुओं की उपयोग की जानकारी
३) स्थिर ग्राम्य जीवन का विकास।
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